तारकशी में भविष्य तलाश रहे युवाओं को मिला रास्ता
मैनपुरी। जनपद में हस्तशिल्प से जुड़ी कला तारकशी यूं तो काफी प्राचीन है लेकिन एक जनपद एक उत्पाद योजना में शामिल होने के बाद से तारकशी में भविष्य तलाश रहे युवाओं को नया रास्ता मिला है। शहर का एक परिवार युवाओं की किस्मत को तारकशी के हुनर से तराश रहा है। प्रदेश के साथ ही देशभर के चार सौ युवा इस हुनर को सीखकर आत्मनिर्भर बन चुके हैं।
तारकशी को प्रदेश सरकार ने एक जनपद एक उत्पाद योजना में शामिल किया है। इस हस्तशिल्प कला को पहले मोहल्ला देवपुरा निवासी रामस्वरूप शाक्य ने आगे बढ़ाया। वर्ष 2007 में रामस्वरूप शाक्य के निधन के बाद उनके पुत्र विनोद कुमार शाक्य, राजकुमार शाक्य और नेमीचंद्र शाक्य इस कला को आगे बढ़ा रहे हैं। तीनों भाई अब तक चार सौ से अधिक लोगों को तारकशी का प्रशिक्षण दे चुके हैं। प्रशिक्षण लेने वालों में प्रदेश के साथ ही देश के कई अन्य युवा भी शामिल हैं। आज ये सभी तारकशी की दम पर आत्मनिर्भर बन चुके हैं। एक जनपद एक उत्पाद में शामिल होने के बाद से अब जिला उद्योग केंद्र और हस्तशिल्प कला केंद्र की ओर से भी तारकशी का प्रशिक्षण युवाओं को दिलाया जा रहा है।
तारकशी में शीशम की लकड़ी पर तांबे के तार से उकेरते हैं आकृति
शीशम की लकड़ी पर तांबे के तारों से किसी भी व्यक्ति, इमारत आदि का सजीव चित्र उकेरा जाता है। तारकशी देश और विदेश में पहचान रखती है। इसका इतिहास सैकड़ों साल पुराना है। वर्ष 1864 में ब्रिटिश हुकूमत के दौरान मैनपुरी के असिस्टेंट कलक्टर रहे हैडिक सीमन ग्राउंस ने अपनी पुस्तक में इसके बारे में लिखा था। उनके लेख के अनुसार, मैनपुरी में इस कला की उत्पत्ति चौहान वंश के राजघराने की एक शाखा के राजस्थान से यहां आने के साथ हुई। इसी राजघराने के साथ ही एक तारकशी शिल्पी यहां आए थे। कलक्टर तारकशी कला के प्रेमी थे। उनके बुलंदशहर तबादले के साथ वह यहां से तारकशी की कई कलाकृतियां अपने साथ ले गए। जो आज भी लखनऊ संग्रहालय में संरक्षित हैं।
तारकशी में युवाओं को मिल रहा रोजगार
विनोद कुमार और उनके परिजन अब तक चार सौ युवा और युवतियों को तारकशी का प्रशिक्षण दे चुके हैं। उनका कहना है कि तारकशी से युवाओं को रोजगार मिल रहा है। प्रशिक्षण पाकर युवाओं ने देश के कई हिस्सों में कारोबार शुरू किया है। एक हजार से लेकर एक लाख रुपये की तारकशी की तस्वीर बाजार में आसानी से बिक जाती हैं। उपहार में तारकशी से बने चित्रों को देने का चलन बढ़ा है।